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बालि और सुग्रीव (कविता)

अनुभूति
अनुभूति
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हे नाथ कहूँ मैँ क्या तुमसे ,गिरि पर रहता हूँ मैँ छुप कर
मै भागा भागा फिरता हूँ अपने ही भाई से डर कर
मेरा भाई है बालि प्रबल ,जिसने मेरा राज्य हड़पकर
पत्नी मेरी छीनी उसने, बल के घमण्ड मेँ चकराकर
जो भी उससे लड़ने जाता ,आधा बल उसका लेता हर
मेरे प्राणोँ का प्यासा है ,ढ़ूँढ़ेँ मुझको हर नगर डगर
सुग्रीव राम को सुना रहा दुःख भरी कहानी रो -रो कर
हो गये द्रवित दुःख देख मित्रका
बोले भुजा उठाकर रघुवर
चल आज बालि आतंक मिटा दूँ
अन्याय न सहते है चुप रहकर
चल पड़े राम सुग्रीव सहित
जब मिला बालि बंदर का घर
सुग्रीव उसे ललकार रहा
ए धृष्ट, क्रूर,कपटी,कायर
ओ दुष्ट निकल घर से बाहर
दम है तो आ मुझसे लड़ले
क्यूँ छिपता है घर के भीतर
सुन शोर गरजता बालि चला
मतवाले हाथी की नाई चिग्घाड़ चला
छोटे भाई को देख ठिठककर
फिर बालि तुरत बोला हँसकर
मैँ तूझे ढ़ूढ़ता था घर-घर
तू मरने आया खुद चलकर

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