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कल रात आकाश मेँ चाँद-तारोँ का पता न था ।
बादलोँ ने उन्हेँ ,न जाने कहाँ छिपा रखा था ।।
आसमान बादलोँ की सफेद चादर से लिपटा हुआ था ।
चाँद न था, पर चाँदनी की प्रभा से शहर पटा हुआ था ।।
चाँदनी रात के उजाले मेँ,ऊँची ऊँची इमारतेँ कृत्रिम रोशनी से जगमगा रही थी ।
गलियाँ, घर ,कारखानेँ,सब चाँदनी की चमक से नहा रही थी ।।
चाँदनी रात मेँ बारिश की बूँदेँ जैसे
सोने के डब्बे मेँ ,मोतियोँ की बरसात हो रही थी ।
प्यासी धरती इन बारिश की बूँदोँ को अपने आँचल मेँ यूँ सहेज रही थी ।।
जैसे दो तड़पते दिल एक दूजे से मिल रहे थे ।
मैँ छत के सबसे ऊपरी तल्ले पर बैठा ये खूबसुरत सा नजारा देख रहा था ।।
चाँदनी रात मेँ सँजी खूबसुरत दिल्ली की खूबसुरती को निरेख रहा था।
भोर की सन- सन चलती मधुर हवा शायद मेरे कानोँ मेँ यही कह रही थी
आज की चाँदनी रात मेँ ,कृत्रिम रोशनी ,बादलोँ और बारिश की बूँदोँ बीच अपनी दिल्ली दुल्हन सी सजी हुई थी
अरुण चतुर्वेदी ‘अनंत’
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