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प्रकृति का प्रतिशोध (कविता)

अनुभूति
अनुभूति
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पहाड़ोँ मेँ प्रकृति का
भीषण नरसंहार
पहाड़ोँ के सन्नाटे मेँ
रास्ता भटके लोगोँ की
गूँजती चीत्कार
आहेँ,सड़ती लाशेँ,
मलबोँ का लगा ढेर
उन्हीँ पहाड़ोँ मे, जो पहाड़
प्रकृति की खूबसुरती के नमूने थे
सैलानियोँ की सैरगाह,
प्रकृति के आकर्षण
उन्हीँ पहाड़ोँ के सीने को चीरकर
उनकी धमनीयोँ मेँ बहने वाली
नदीयोँ को बाँधकर,मोड़कर, रोककर,टोककर,
उसके निवासियोँ को मारकर
पहाड़ोँ का बाजारीकरण कर
उसके वाशिन्दोँ को उजाड़ कर
प्रकृति के आभूषण,उसके पेड़ोँ को काटकर
हमने जो गलतियां की थी
प्रकृति की लक्ष्मण रेखा को लाँघकर
इसी से प्रकृति ने कोँपकर
वीभत्स ,और महाभयानक रुप पकडकर
निर्ममता और क्रूरता की हद लाँघकर
हमसे प्रतिशोध लिया है
और साथ मे यह चेतावनी देकर
कि वह कुपित होकर
किसी भी स्तर पर जाकर
विनाश मचा सकती है

अरुण चतुर्वेदी ‘अनंत’

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