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आग उगलती जेठ दुपहरी
आसमान से लपटेँ गिरतीँ
नीचे से धरती है जलती
सहकर गर्मी की असह्य वेदना
गर्म आँच पर लौह गलाता
कोल खदानोँ मेँ पिस जाता
खेतोँ मेँ है अन्न उगाता
पर इसका बच्चा भूखा सो जाता
गर्मी,जाड़ा ,बरसातोँ मेँ
निर्जन अँधेरी रातोँ मेँ
जब दुनियाँ सोयी रहती है
सपनोँ मेँ खोयी रहती है
तजकर निद्रा और भूख -प्यास
यह अथक परिश्रम करता
दुनियाँ के चलने हेतु ,मनुज यह मार्ग बनाया करता है
दुनियाँ के विकास की खातिर स्कूल बनाता काँलेज बनाता
पर इसका बच्चा स्कूल नहीँ जा पाता
‘शिक्षा का हक’ के हक से वँचित रह जाता
बचपन की वह अल्हड़ मस्ती भूल पेट की खातिर
ले कुदाल हाथोँ मेँ खेतोँ मेँ लग जाता
उँचे ऊँचे महल बनाता
बड़े बड़े है शहर बसाता
दुनियाँ को आश्रय देता ,पर सड़क किनारे झोपड़ियोँ मेँ ,फुटपाथोँ पर इसका घर है
सड़क किनारे यह सो जाता
सीधा -साधा मनुज बेजुबान बन ,जुल्म ,दर्द और पीड़ा सहता
आजादी का 60 वर्ष बीता
फिर भी शोषण उत्पीड़न सहता
सबको शिक्षा,सबको भोजन, सबको आश्रय ,इस झूठे दावे की पोल खोलता
अरुण चतुर्वेदी ‘अनंत’
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